नाट्यशास्त्र, द्वितीय भाग:-प्रेक्षागृह
(रंगकर्मी) सहायक आचार्य
रांची विश्वविद्यालय रांची
जैसा कि मैंने नाट्यशास्त्र के अध्यायों की प्रथम भाग में चर्चा कर चुके हैं। हम सभी जानते हैं कि भरत नाट्यशास्त्र के दूसरे अध्याय में प्रेक्षागृह के बारे में वर्णन किया गया है। ऐसा माना जाता है की भरत नाट्यशास्त्र को प्राय ईशा की पहली अथवा दूसरी शताब्दी में संकलित किया गया होगा। इस संदर्भ में विभिन्न विद्वानों के अलग-अलग मत हैं। इसी में हमें नाट्य मंडप के प्राचीन स्वरूप का संकेत प्राप्त होता है, जो पहाड़ों की गुफा में बनता था-"शैल गुहाकारों"। यह तो सर्वविदित है की पहाड़ों की कंन्दराए प्राय नागरिकों की आमोद- प्रमोद के काम आती थी। इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए की इस गुफा में भरत के पूर्व नाटक भी खेले जाते रहे होंगे।
अभी तक नाट्य मंडप के जो प्रमाण भारत में प्राप्त हुए हैं उनमें ऐतिहासिक दृष्टि से सबसे ठोस जो है वह सीतावेगा तथा जोगीमारा गुहा के मंडप हैं। जो अभी वर्तमान में छत्तीसगढ़ राज्य के सरगुजा प्रांत में अवस्थित है। सीतावेगा गुफा का आकार प्रकार तथा उसके समक्ष बना दर्शकों को बैठने के लिए सीढ़ीनुमा स्थान इस धारणा की पुष्टि करता है। भरत ने अपने नाट्यशास्त्र में इस प्रकार के गुफा रूपी नाट्य मंडपों के आकार को तथा आर्यों के तंबुनुमा नाट्य मंडप के आकार को जिनमें वे कदाचित पहले अपने नाटक खेलते रहे होंगे दोनों को अपनाया। इन दोनों नाट्य मंडप के सम्मिश्रण से जो रूप उन्होंने नाट्य मंडपओं के लिए निर्धारित किए वे सर्वथा भारतीय नाट्य मंडप कहलाए।
प्राचीन ग्रीक एवं रोमन स्वरूपों से इनका कोई संबंध नहीं प्रतीत होता है। पाश्चात्य नाट्यशाला तो खुले मैदानों में बनते थे तथा उनमें दर्शकों के बैठने हेतु अर्धचंद्राकार सीढ़ी नुमा प्रेक्षा स्थान बनाते थे। भारतीय रंगमंच में बिल्कुल विपरीत नाट्यशाला की व्यवस्था एक घर के भीतर प्राप्त होती है।
भरत ने नाट्यशाला के 3 आकार बताएं हैं, १.विकृष्ट २. चतुरश्र ३. त्रयश्र। ृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृ
आज हमें कहीं भी त्रिकोण प्रेक्षागृह देखने को नहीं मिलते, आयताकार और वर्गाकार तो मिल भी जाते हैं, आज तक देखा गया है कि त्रिभुजाकार प्रेक्षागृह के लाभ पर हमारा ध्यान अभी तक नहीं गया, जबकि आज के समय में मुझे लगता है कि इसकी आवश्यकता आन पड़ी है, क्योंकि इसमें थोड़े से स्थान में हम नाट्य कर्म कर सकते हैं। क्योंकि हमारे बीच जगह का बहुत अभाव हो गया है, आज हम छोटे-छोटे जगहों में रिहर्सल कर लेते हैं तो नाटक कर्म क्यों नहीं कर सकते! विकृष्ट नाट्य मंडल की विशेषता यह है कि इसमें अधिक दर्शकों के बैठने का स्थान होता है। इन नाट्य मंडपों के विस्तार में आधा स्थान नाटक के पात्रों के हेतु तथा आधा स्थान दर्शकों के हेतु रहता था, लेकिन आज वहीं दर्शकों के लिए अधिक स्थान रखा जाता है और अभिनेताओं के रंग कर्म करने के लिए कम स्थान।
इस अध्ययन का सबसे रोचक पहलू मुझे यह लगता है की सबसे पहले आकार के हिसाब से प्रेक्षागृह अथवा नाट्य मंडप के तीन भेद प्रस्तावित किए गए हैं जैसा कि पहले मैंने इसकी चर्चा किया है जिसमें पहला विकृष्ट यानी आयताकार दूसरा चतुरस्त्र यानी वर्गाकार और तीसरा त्रयस्त्र यानी त्रिभुजाकार।यह बात तो हुई मूल आकार की मूल परिकल्पना का, अब माप के हिसाब से हर प्रकार के तीन-तीन भेद किए गए हैं। और हम उसे जेष्ठ यानी सबसे बड़ा, मध्यम यानी बीच का और आखिर में कनिष्ठ यानी सबसे छोटा।
तो अब सवाल ये उठता है की भरत ने दशरूपक के अंतर्गत विवेचित आलेखों के 10 प्रकार प्रस्तावित किए गए हैं तो जाहिर है कि उनके लिए रंग मंडप भी अलग अलग होंने चाहिए। इस धारणा को आज भी हम लोग पालन करते आ रहे हैं जैसे नुक्कड़ नाटक शहरों कस्बों के चौराहों पर लोकनाट्य किसी भी तरह से खुले मंच में और यथार्थवादी नाटक के लिए एक बंद प्रेक्षागृह की जरूरत पड़ती है। यहां जयशंकर प्रसाद की एक उक्ति याद आती है, उन्होंने कहा था की "नाटक के लिए रंगमंच होना चाहिए न की रंगमंच के लिए नाटक"। रंगमंच के विकास का इतिहास भी इस बात का साक्षी है कि पहले कहानी, कथानक अथवा आलेख का जन्म हुआ और फिर उसके मंचन के लिए एक उपयुक्त स्थान की जरूरत पड़ी। अलग-अलग आलेखों के अलावा भरतमुनि ने उसमें उपलब्ध पात्रों के व्यक्तित्व प्रकृति और संख्या को देखकर प्रेक्षागृह को नौ रूपों में विभाजित किया होगा।
उनकी दृष्टि में किसी भी आकार का सबसे बड़ा प्रेक्षागृह ऐसे नाट्य आलेखों के लिए होगा जिसके पात्र देवता होंगे। मध्यम आकार के नाट्य मंडपों के लिए वैसे आलेख का चयन किया गया होगा जिसके पात्र मनुष्य होंगे और कनिष्ठ असुर, राक्षस इत्यादि पात्रों के लिए प्रस्तावित किया गया है।
आकार की दृष्टि में तीन-तीन भेद है, इन तीन प्रकार के नाट्य मंडपों को नाप के आधार पर तीन तीन भागों में बांटा गया है। नाट्यशास्त्र में नाप-जोख का जो ब्योरा प्राप्त होता है वह भी बड़ा वैज्ञानिक है। विश्वकर्मा जी के द्वारा सभी प्रकार के प्रेक्षागृहों के जो लक्षण तथा प्रमाण निर्दिष्ट किए हैं उनके अनुसार अणु,रज,बाल,लीख, जूं,जौ, अंगुली, हस्त, दंड यह नौ प्रकार के नाप की इकाई बताई गई है।आठ अणुओं का एक रज होता है,आठ रजों का एक बाल,आठ बालों की एक लीख तथा आठ लीखों से एक जूं होती है। आठ जूं से एक जौंं तथा आठ जौं का एक अंगुल होता है। 24 अंगुल का एक हाथ तथा चार हाथ का एक दंड कहलाता है। इसी मापन प्रणाली से प्रेक्षागृहों का निर्माण कराया जाता है।
उदाहरण के लिए सबसे बड़ा विकृष्ट नाट्य मंडप जो लंबाई में 108 हस्त और चौड़ाई में 64 हस्त होता है। विकृष्ट मध्यम 64 हस्त लंबा और 32 हस्त चौड़ा होना चाहिए वहीं कनिष्ठ विकृष्ट मंडप 32 हस्त लंबाई में और 16 हस्त चौड़ाई में होना चाहिए। नाप की यही तालिका बाकी दोनों प्रकार के आकार और प्रकार के मंडपों पर भी लागू की गई है अर्थात सबसे बड़ा चतुरस्त्र की चारों भुजाएं 108 हस्त, मध्यम चतुरस्त्र की चारों भुजाएं 64 हस्त और सबसे छोटे चतुरस्त्र की चारों भुजाएं 32 हस्त के रूप में प्रस्तावित है। इसी प्रकार बड़े त्रिभुजाकार की तीनों भुजाएं 108 हस्त, मध्यम त्रिभुजाकार की 64 हस्त और सबसे छोटे त्रिभुजाकार की 32 हस्त मानी गई है।
हम रंग कर्मियों के लिए हस्त थोड़ा अपरिचित सा लगेगा, इसे इस प्रकार से समझने की कोशिश करें की एक हस्त बराबर डेढ़ फीट माना गया है, यानी 1 फीट बराबर 12 इंच।अगर यू कहें की एक हस्त बराबर 18 इंच होता है। इस आधार पर भरत के किसी भी नाट्यशालाओं को अपने समय की अंक तालिका में परिवर्तित कर हम देख सकते हैं। इन सभी प्रेक्षागृहों में विकृष्ट मध्यम परिमाण का प्रेक्षागृह उत्तम होता है। क्योंकि इसमें पाठ तथा गीत को बहुत ही सुगमता पूर्वक स्पष्ट शब्दों में सुना जा सकता है। इस प्रेक्षागृह को उत्तम होने के पीछे और भी कई कारण भरत ने सुझाया है, यह नाट्य मंडप न तो बहुत बड़ा है और ना बहुत छोटा जिससे कि अभिनेताओं के हाव भाव भी ठीक से दिखाई न पड़े और न उनके हाव-भाव अतिरंजित होकर सामने आए और अभिनेताओं द्वारा कहे जाने वाले वाक्य चाहे जितने भी धीमी क्यों ना हो फिर भी काफी तेज सुनाई पड़े। इससे जाहिर होता है कि भरत ने आदर्श नाट्य मंडप का चुनाव करते समय अभिनेताओं के 2 मूल तत्व को कितनी प्रमुखता प्रदान की है, प्रथम आवाज़ और दूसरा शारीरिक भंगीमाय उसमें भी मुख्य रूप से अभिनेताओं के चेहरे की भाषा और हाव-भाव की सूक्ष्मता।
अब हम बात करते हैं नाट्य मंडप के निर्माण की प्रक्रिया जो नाट्यशास्त्र में बताया गया है, जिस भूखंड पर प्रेक्षागृह का निर्माण करना होता है उसका सबसे पहले संभावित रेखाचित्र तैयार कर ली जाती है। जिस भी परिमाप का प्रेक्षागृह बनाना चाहता है। तत्पश्चात ज़मीन के एक टुकड़े को चुनने का प्रावधान किया है, जो पूरी तरह से समतल साफ-सुथरा और झाड़-झाड़ियों से रहित हो। फिर भूखंड के टुकड़े को प्रेक्षागृह के माप के अनुसार दो बराबर भागों में विभक्त कर लिया जाता है।
और यहां ध्यान रखने वाली बात यह है कि जिस भी खंड पर सूर्य की किरणें सीधी पड़ती हो वह मंच के लिए और उसके सामने वाला खंड दर्शक-दीर्घा के लिए प्रयोग किया जाए। पर जो खंड अभिनय के लिए चुना गया है उसको पुनः दो बराबर भागों में बांट दिया जाता है। जिसमें से दर्शकों के सामने वाला भूखंड अभिनेताओं के द्वारा अभिनय स्थल और उसके पीछे वाला हिस्सा नेपथ्य के लिए निर्धारित किया जाता है। दोनों खंडों के बीच एक दीवार का प्रावधान है जिसमें 2 दरवाजों का उपयोग किया गया है। यह दोनों द्वार ऊंचाई तथा चौड़ाई में कितने होंगे और यह मंच पर एक दूसरे के कितने पास या दूर होंगे इसका कोई निर्धारित संकेत नहीं मिलता है।
हां भरत ने एक दूसरे प्रसंग में कहते हैं की इन दोनों दरवाजों के बीच 8 * 8 हस्त का कुतप अथवा एक वेदिका जैसा स्थान होना चाहिए जिस पर प्रदर्शन के दौरान गायक वादक और उन से जुड़ा हुआ वाद्य वृंद बैठ सके। यदि हम दर्शकों की तरफ से स्टेज को देखें तो हमें मुख्य रूप से दो धरातल दिखाई देते हैं प्रथम का नाम है रंगपीठ तथा दूसरे का नाम है रंगशीर्ष। रंगपीठ ज़मीन की सतह से डेढ़ हस्त ऊंचा होना चाहिए, अगर आज के माप में हम कहें तो 27 इंच बराबर सवा 2 फीट। और रंगशीर्ष, रंगपीठ से आधा हस्त ऊंचा यानी 9 इंच। वही रंगपीठ के बाएं और दाएं दोनों कोनों पर 8 * 8 के दो विशेष क्षेत्रों की कल्पना की गई है जिन्हें मत्तवारिणी की संज्ञा से अभिहित किया गया है।
पिछली दीवार के दोनों दरवाजों पर पर्दे होते हैं जिसे पटी- अपटी के नाम से जाने जाते हैं। प्रेक्षागृह के भूखंड को चारोंं ओर दीवारों से घिरा हुआ होता है जो बाहर से देखने पर शैलगुहा जैसा लगता है। जिस प्रकार किसी पर्वत में गुफा की छत हुआ करती है, यह आकार मात्र सजावट और अलंकरण की दृष्टि से नहीं है, वरन् पत्रों की आवाज़ की ध्वन्यात्मकता को ध्यान में रखकर अभिकल्पित किया गया है। जिस प्रकार पर्वत की गुफा में बोला गया संवाद बहुत देर तक ध्वनित होता रहता है वही विशेषता इस नाट्य मंडप में भी होता है।
दर्शकदीर्घा के ठीक पीछे वाली दीवार मैं दर्शकों के प्रवेश के लिए मुख्य द्वार का प्रावधान होता है। साथ ही साथ दर्शकों के बाईं और दाईं ओर दीवार में कम से कम 2 प्रवेश द्वारों की व्यवस्था की गई है। मंच के दोनों द्वारों के पीछे का पूरा हिस्सा नेपथ्य गृह का कार्य करता है जिसमें अभिनेताओं के प्रसाधन, रूपसज्जा और वेशभूषा के लिए कम से कम 2 कमरों का प्रावधान होना आवश्यक है। जिन्हें स्त्री पात्र और पुरुष पात्र अपने प्रयोग में ला सकें। वास्तुकारों ने नेपथ्य और मंच पर स्थित दीवार के ठीक पीछे एक और अस्थाई दीवार की परिकल्पना की है और जिसका होना वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक दोनों दृश्यों से बहुत ही जरूरी है।
जरा सोचिए की अगर कोई पात्र द्वार पर पर्दा एक तरफ सरका कर मंच पर प्रवेश करता है तो ठीक पीछे कोई दीवार ना होने से नेपथ्य का सारा रखरखाव भी दर्शकों के सामने उपस्थित हो जाएगा। यही कारण है की आज भी मंच सज्जा से जुड़ी पिछली दीवार के साथ साथ हमेशा एक और दीवार की परिकल्पना की जाती रही है, जो पात्रों को दर्शकों की दृष्टि में आए बिना मंच के हर कोने में आने-जाने की सुविधा प्रदान करती है आधुनिक रंगमंच में साइक्लोरामा की उपस्थिति को हम इसी रूप में देख सकते हैं।
*डॉ दीपक प्रसाद*
अभिनेता, निर्देशक, प्राध्यापक, रंगकर्मी
रांची विश्वविद्यालय रांची, झारखंड
संपर्क:-8935984266
अभी तक नाट्य मंडप के जो प्रमाण भारत में प्राप्त हुए हैं उनमें ऐतिहासिक दृष्टि से सबसे ठोस जो है वह सीतावेगा तथा जोगीमारा गुहा के मंडप हैं। जो अभी वर्तमान में छत्तीसगढ़ राज्य के सरगुजा प्रांत में अवस्थित है। सीतावेगा गुफा का आकार प्रकार तथा उसके समक्ष बना दर्शकों को बैठने के लिए सीढ़ीनुमा स्थान इस धारणा की पुष्टि करता है। भरत ने अपने नाट्यशास्त्र में इस प्रकार के गुफा रूपी नाट्य मंडपों के आकार को तथा आर्यों के तंबुनुमा नाट्य मंडप के आकार को जिनमें वे कदाचित पहले अपने नाटक खेलते रहे होंगे दोनों को अपनाया। इन दोनों नाट्य मंडप के सम्मिश्रण से जो रूप उन्होंने नाट्य मंडपओं के लिए निर्धारित किए वे सर्वथा भारतीय नाट्य मंडप कहलाए।
प्राचीन ग्रीक एवं रोमन स्वरूपों से इनका कोई संबंध नहीं प्रतीत होता है। पाश्चात्य नाट्यशाला तो खुले मैदानों में बनते थे तथा उनमें दर्शकों के बैठने हेतु अर्धचंद्राकार सीढ़ी नुमा प्रेक्षा स्थान बनाते थे। भारतीय रंगमंच में बिल्कुल विपरीत नाट्यशाला की व्यवस्था एक घर के भीतर प्राप्त होती है।
भरत ने नाट्यशाला के 3 आकार बताएं हैं, १.विकृष्ट २. चतुरश्र ३. त्रयश्र। ृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृ
आज हमें कहीं भी त्रिकोण प्रेक्षागृह देखने को नहीं मिलते, आयताकार और वर्गाकार तो मिल भी जाते हैं, आज तक देखा गया है कि त्रिभुजाकार प्रेक्षागृह के लाभ पर हमारा ध्यान अभी तक नहीं गया, जबकि आज के समय में मुझे लगता है कि इसकी आवश्यकता आन पड़ी है, क्योंकि इसमें थोड़े से स्थान में हम नाट्य कर्म कर सकते हैं। क्योंकि हमारे बीच जगह का बहुत अभाव हो गया है, आज हम छोटे-छोटे जगहों में रिहर्सल कर लेते हैं तो नाटक कर्म क्यों नहीं कर सकते! विकृष्ट नाट्य मंडल की विशेषता यह है कि इसमें अधिक दर्शकों के बैठने का स्थान होता है। इन नाट्य मंडपों के विस्तार में आधा स्थान नाटक के पात्रों के हेतु तथा आधा स्थान दर्शकों के हेतु रहता था, लेकिन आज वहीं दर्शकों के लिए अधिक स्थान रखा जाता है और अभिनेताओं के रंग कर्म करने के लिए कम स्थान।
इस अध्ययन का सबसे रोचक पहलू मुझे यह लगता है की सबसे पहले आकार के हिसाब से प्रेक्षागृह अथवा नाट्य मंडप के तीन भेद प्रस्तावित किए गए हैं जैसा कि पहले मैंने इसकी चर्चा किया है जिसमें पहला विकृष्ट यानी आयताकार दूसरा चतुरस्त्र यानी वर्गाकार और तीसरा त्रयस्त्र यानी त्रिभुजाकार।यह बात तो हुई मूल आकार की मूल परिकल्पना का, अब माप के हिसाब से हर प्रकार के तीन-तीन भेद किए गए हैं। और हम उसे जेष्ठ यानी सबसे बड़ा, मध्यम यानी बीच का और आखिर में कनिष्ठ यानी सबसे छोटा।
तो अब सवाल ये उठता है की भरत ने दशरूपक के अंतर्गत विवेचित आलेखों के 10 प्रकार प्रस्तावित किए गए हैं तो जाहिर है कि उनके लिए रंग मंडप भी अलग अलग होंने चाहिए। इस धारणा को आज भी हम लोग पालन करते आ रहे हैं जैसे नुक्कड़ नाटक शहरों कस्बों के चौराहों पर लोकनाट्य किसी भी तरह से खुले मंच में और यथार्थवादी नाटक के लिए एक बंद प्रेक्षागृह की जरूरत पड़ती है। यहां जयशंकर प्रसाद की एक उक्ति याद आती है, उन्होंने कहा था की "नाटक के लिए रंगमंच होना चाहिए न की रंगमंच के लिए नाटक"। रंगमंच के विकास का इतिहास भी इस बात का साक्षी है कि पहले कहानी, कथानक अथवा आलेख का जन्म हुआ और फिर उसके मंचन के लिए एक उपयुक्त स्थान की जरूरत पड़ी। अलग-अलग आलेखों के अलावा भरतमुनि ने उसमें उपलब्ध पात्रों के व्यक्तित्व प्रकृति और संख्या को देखकर प्रेक्षागृह को नौ रूपों में विभाजित किया होगा।
उनकी दृष्टि में किसी भी आकार का सबसे बड़ा प्रेक्षागृह ऐसे नाट्य आलेखों के लिए होगा जिसके पात्र देवता होंगे। मध्यम आकार के नाट्य मंडपों के लिए वैसे आलेख का चयन किया गया होगा जिसके पात्र मनुष्य होंगे और कनिष्ठ असुर, राक्षस इत्यादि पात्रों के लिए प्रस्तावित किया गया है।
आकार की दृष्टि में तीन-तीन भेद है, इन तीन प्रकार के नाट्य मंडपों को नाप के आधार पर तीन तीन भागों में बांटा गया है। नाट्यशास्त्र में नाप-जोख का जो ब्योरा प्राप्त होता है वह भी बड़ा वैज्ञानिक है। विश्वकर्मा जी के द्वारा सभी प्रकार के प्रेक्षागृहों के जो लक्षण तथा प्रमाण निर्दिष्ट किए हैं उनके अनुसार अणु,रज,बाल,लीख, जूं,जौ, अंगुली, हस्त, दंड यह नौ प्रकार के नाप की इकाई बताई गई है।आठ अणुओं का एक रज होता है,आठ रजों का एक बाल,आठ बालों की एक लीख तथा आठ लीखों से एक जूं होती है। आठ जूं से एक जौंं तथा आठ जौं का एक अंगुल होता है। 24 अंगुल का एक हाथ तथा चार हाथ का एक दंड कहलाता है। इसी मापन प्रणाली से प्रेक्षागृहों का निर्माण कराया जाता है।
उदाहरण के लिए सबसे बड़ा विकृष्ट नाट्य मंडप जो लंबाई में 108 हस्त और चौड़ाई में 64 हस्त होता है। विकृष्ट मध्यम 64 हस्त लंबा और 32 हस्त चौड़ा होना चाहिए वहीं कनिष्ठ विकृष्ट मंडप 32 हस्त लंबाई में और 16 हस्त चौड़ाई में होना चाहिए। नाप की यही तालिका बाकी दोनों प्रकार के आकार और प्रकार के मंडपों पर भी लागू की गई है अर्थात सबसे बड़ा चतुरस्त्र की चारों भुजाएं 108 हस्त, मध्यम चतुरस्त्र की चारों भुजाएं 64 हस्त और सबसे छोटे चतुरस्त्र की चारों भुजाएं 32 हस्त के रूप में प्रस्तावित है। इसी प्रकार बड़े त्रिभुजाकार की तीनों भुजाएं 108 हस्त, मध्यम त्रिभुजाकार की 64 हस्त और सबसे छोटे त्रिभुजाकार की 32 हस्त मानी गई है।
हम रंग कर्मियों के लिए हस्त थोड़ा अपरिचित सा लगेगा, इसे इस प्रकार से समझने की कोशिश करें की एक हस्त बराबर डेढ़ फीट माना गया है, यानी 1 फीट बराबर 12 इंच।अगर यू कहें की एक हस्त बराबर 18 इंच होता है। इस आधार पर भरत के किसी भी नाट्यशालाओं को अपने समय की अंक तालिका में परिवर्तित कर हम देख सकते हैं। इन सभी प्रेक्षागृहों में विकृष्ट मध्यम परिमाण का प्रेक्षागृह उत्तम होता है। क्योंकि इसमें पाठ तथा गीत को बहुत ही सुगमता पूर्वक स्पष्ट शब्दों में सुना जा सकता है। इस प्रेक्षागृह को उत्तम होने के पीछे और भी कई कारण भरत ने सुझाया है, यह नाट्य मंडप न तो बहुत बड़ा है और ना बहुत छोटा जिससे कि अभिनेताओं के हाव भाव भी ठीक से दिखाई न पड़े और न उनके हाव-भाव अतिरंजित होकर सामने आए और अभिनेताओं द्वारा कहे जाने वाले वाक्य चाहे जितने भी धीमी क्यों ना हो फिर भी काफी तेज सुनाई पड़े। इससे जाहिर होता है कि भरत ने आदर्श नाट्य मंडप का चुनाव करते समय अभिनेताओं के 2 मूल तत्व को कितनी प्रमुखता प्रदान की है, प्रथम आवाज़ और दूसरा शारीरिक भंगीमाय उसमें भी मुख्य रूप से अभिनेताओं के चेहरे की भाषा और हाव-भाव की सूक्ष्मता।
अब हम बात करते हैं नाट्य मंडप के निर्माण की प्रक्रिया जो नाट्यशास्त्र में बताया गया है, जिस भूखंड पर प्रेक्षागृह का निर्माण करना होता है उसका सबसे पहले संभावित रेखाचित्र तैयार कर ली जाती है। जिस भी परिमाप का प्रेक्षागृह बनाना चाहता है। तत्पश्चात ज़मीन के एक टुकड़े को चुनने का प्रावधान किया है, जो पूरी तरह से समतल साफ-सुथरा और झाड़-झाड़ियों से रहित हो। फिर भूखंड के टुकड़े को प्रेक्षागृह के माप के अनुसार दो बराबर भागों में विभक्त कर लिया जाता है।
और यहां ध्यान रखने वाली बात यह है कि जिस भी खंड पर सूर्य की किरणें सीधी पड़ती हो वह मंच के लिए और उसके सामने वाला खंड दर्शक-दीर्घा के लिए प्रयोग किया जाए। पर जो खंड अभिनय के लिए चुना गया है उसको पुनः दो बराबर भागों में बांट दिया जाता है। जिसमें से दर्शकों के सामने वाला भूखंड अभिनेताओं के द्वारा अभिनय स्थल और उसके पीछे वाला हिस्सा नेपथ्य के लिए निर्धारित किया जाता है। दोनों खंडों के बीच एक दीवार का प्रावधान है जिसमें 2 दरवाजों का उपयोग किया गया है। यह दोनों द्वार ऊंचाई तथा चौड़ाई में कितने होंगे और यह मंच पर एक दूसरे के कितने पास या दूर होंगे इसका कोई निर्धारित संकेत नहीं मिलता है।
हां भरत ने एक दूसरे प्रसंग में कहते हैं की इन दोनों दरवाजों के बीच 8 * 8 हस्त का कुतप अथवा एक वेदिका जैसा स्थान होना चाहिए जिस पर प्रदर्शन के दौरान गायक वादक और उन से जुड़ा हुआ वाद्य वृंद बैठ सके। यदि हम दर्शकों की तरफ से स्टेज को देखें तो हमें मुख्य रूप से दो धरातल दिखाई देते हैं प्रथम का नाम है रंगपीठ तथा दूसरे का नाम है रंगशीर्ष। रंगपीठ ज़मीन की सतह से डेढ़ हस्त ऊंचा होना चाहिए, अगर आज के माप में हम कहें तो 27 इंच बराबर सवा 2 फीट। और रंगशीर्ष, रंगपीठ से आधा हस्त ऊंचा यानी 9 इंच। वही रंगपीठ के बाएं और दाएं दोनों कोनों पर 8 * 8 के दो विशेष क्षेत्रों की कल्पना की गई है जिन्हें मत्तवारिणी की संज्ञा से अभिहित किया गया है।
पिछली दीवार के दोनों दरवाजों पर पर्दे होते हैं जिसे पटी- अपटी के नाम से जाने जाते हैं। प्रेक्षागृह के भूखंड को चारोंं ओर दीवारों से घिरा हुआ होता है जो बाहर से देखने पर शैलगुहा जैसा लगता है। जिस प्रकार किसी पर्वत में गुफा की छत हुआ करती है, यह आकार मात्र सजावट और अलंकरण की दृष्टि से नहीं है, वरन् पत्रों की आवाज़ की ध्वन्यात्मकता को ध्यान में रखकर अभिकल्पित किया गया है। जिस प्रकार पर्वत की गुफा में बोला गया संवाद बहुत देर तक ध्वनित होता रहता है वही विशेषता इस नाट्य मंडप में भी होता है।
दर्शकदीर्घा के ठीक पीछे वाली दीवार मैं दर्शकों के प्रवेश के लिए मुख्य द्वार का प्रावधान होता है। साथ ही साथ दर्शकों के बाईं और दाईं ओर दीवार में कम से कम 2 प्रवेश द्वारों की व्यवस्था की गई है। मंच के दोनों द्वारों के पीछे का पूरा हिस्सा नेपथ्य गृह का कार्य करता है जिसमें अभिनेताओं के प्रसाधन, रूपसज्जा और वेशभूषा के लिए कम से कम 2 कमरों का प्रावधान होना आवश्यक है। जिन्हें स्त्री पात्र और पुरुष पात्र अपने प्रयोग में ला सकें। वास्तुकारों ने नेपथ्य और मंच पर स्थित दीवार के ठीक पीछे एक और अस्थाई दीवार की परिकल्पना की है और जिसका होना वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक दोनों दृश्यों से बहुत ही जरूरी है।
जरा सोचिए की अगर कोई पात्र द्वार पर पर्दा एक तरफ सरका कर मंच पर प्रवेश करता है तो ठीक पीछे कोई दीवार ना होने से नेपथ्य का सारा रखरखाव भी दर्शकों के सामने उपस्थित हो जाएगा। यही कारण है की आज भी मंच सज्जा से जुड़ी पिछली दीवार के साथ साथ हमेशा एक और दीवार की परिकल्पना की जाती रही है, जो पात्रों को दर्शकों की दृष्टि में आए बिना मंच के हर कोने में आने-जाने की सुविधा प्रदान करती है आधुनिक रंगमंच में साइक्लोरामा की उपस्थिति को हम इसी रूप में देख सकते हैं।
*डॉ दीपक प्रसाद*
अभिनेता, निर्देशक, प्राध्यापक, रंगकर्मी
रांची विश्वविद्यालय रांची, झारखंड
संपर्क:-8935984266
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