नाट्यशास्त्र, प्रथम भाग

 नाट्यशास्त्र का उद्देश्य

डॉ दीपक प्रसाद 
(रंगकर्मी) 
रांची विश्वविद्यालय रांची


"नाट्यशास्त्र" नाट्यशास्त्र जो सबसे प्राचीन ग्रंथ आज उपलब्ध है उसमें 36 या 37 अध्याय हैं। यह ग्रंथ नाट्य का ही नहीं संगीत, नृत्य, अलंकार शास्त्र का भी प्राचीनतम और प्रमाणिक पथ प्रदर्शक ग्रंथ कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। इसके पूर्व चर्चा कर चुके हैं कि ब्रह्मा ने नाट्य कला को जन्म दिया था। अब हम यहां नाट्यशास्त्र की संक्षिप्त रूपरेखा प्रस्तुत कर रहे हैं।। 

नाट्यशास्त्र के प्रथम अध्याय में भरतमुनि के आत्रेय आदि ऋषियों द्वारा नाट्य वेद के विषयों में जिज्ञासा पूर्वक प्रश्न किए गए की नाट्य वेद की उत्पत्ति कैसे हुई? किसके लिए हुई? इसके कौन-कौन अंग हैं? उसकी प्राप्ति के उपाय कौन से हैं? तथा उसका प्रयोग कैसे हो सकता है? भरतमुनि ने इसके उत्तर में कहा की नाट्य वेद का ऋग्वेद से पाठ्य अंश सामवेद से संगीत, यजुर्वेद से अभिनय तथा अथर्ववेद से रसों को लेकर इसकी रचना किया गया है ।।
द्वितीय अध्याय में भरतमुनि ने नाट्य प्रदर्शन के लिए आवश्यक होने के कारण प्रेक्षागृह का वर्णन किया है, प्रेक्षागृह के तीन प्रकारों को बताया तथा उनके शिल्प आकार तथा साधनों का विस्तार से वर्णन किया है।।
वहीं तृतीय अध्याय में नाट्य मंडप में संपादित की जाने वाली आवश्यक धार्मिक कार्यकलापों का वर्णन करते हुए विभिन्न देवताओं की पूजा तथा उन से प्राप्त होने वाले फलों का निरूपण किया है।।
चतुर्थ अध्याय में भरत मुनि द्वारा अमृत मंथन नाट्य प्रयोग देवताओं के सम्मुख प्रस्तुत करने तथा त्रिपुरदाह को शिव के सम्मुख करने तथा शिव के आदेश से तण्डु द्वारा भरतमुनि को अंगहार, करण तथा रेचकों का ज्ञान करवाने का वर्णन है।।

पंचम अध्याय में नाट्य प्रयोग के आरंभ में प्रस्तुत किए जाने वाले पूर्व- रंगविधान, नांदीपाठ, प्रस्तावना आदि का विवेचन किया है।।

छठे अध्याय में रस की उत्पत्ति के बारे में बताया गया है। साथ ही साथ इस क्रम में रस निष्पत्ति रसों का भाव आदि से पारंपरिक संबंध, रसों के अधिष्ठाता तथा रस एवं उसके स्थाई भावों का विस्तृत वर्णन दिया गया है।।

सप्तम अध्याय भावाध्याय है, इसमें भाव, विभाव, स्थाई भाव तथा संचारी भाव या व्यभिचारी भावों का विस्तृत अध्ययन तथा आठ प्रकार के सात्विक भावों का वर्णन किया गया है।।

अष्टम अध्याय में अभिनय के बारे में बताया गया है इसमें अभिनय के प्रकार आंगिक, वाचिक, आहार्य, तथा सात्विक भेद बताए गए हैं, जिसमें आंगिक अभिनय के अंतर्गत उपांग अभिनय का विस्तृत वर्णन किया गया है।।
नवम अध्याय में आंगिक अभिनय को और आगे बढ़ाते हुए हस्त, कटि, जानू तथा पाद जैसे शरीर के अंगों का अभिनय विस्तार से निरूपित किया गया है। 24 असंयुक्त हस्त मुद्राओं 13 संयुक्त हस्त मुद्राओं 27 नृत्य हस्त मुद्राओं को मिलाकर 64 प्रकार के हस्त मुद्राओं को वर्णित किया गया है। अंग संचालन तथा हस्त मुद्राओं का प्रयोग रस, भाव तथा अभिनय के अनुरूप होता है, और नृत्य में हस्त मुद्राओं की परम उपयोगीता होती है, इस को ध्यान में रखते हुए इस अध्याय में विस्तृत वर्णन किया गया है।।


  • दशम अध्याय में वक्ष, कटि तथा शरीर के अन्य भागों के परिचालन से संबंधित पांच प्रकारों का विवरण देकर उनके विभिन्न अवसरों पर अभिनय में किए जाने वाले प्रयोग का विवेचन किया है।।


एकादश अध्याय में चारों का निरूपण किया गया है, 16 प्रकार से आंखों की पुतलियों को चलाना एवं 16 प्रकार से आकाश चारी के लक्षण तथा प्रयोगों को बताया गया है।।

इसी को और आगे बढ़ाते हुए द्वादश अध्याय में मंडलों का लक्षण संख्या तथा प्रयोग आदि का निरूपण किया गया है।।

त्रयोदश अध्याय में गति के बारे में बताया गया है, इसमें रस एवं अवस्थाओं के अनुकूल पात्रों की गति क्या होनी चाहिए। एवं नाट्य प्रयोग के आरंभ में शुरू होने वाले ध्रुवाओं के गान के समय पात्रों की गति कैसी होनी चाहिए, जैसे- देवता, राजा मध्यवर्ग के स्त्री, पुरुष, निम्न वर्ग के लोगों की गति में लगने वाले समय। रौद्र, वीभत्स, वीर आदि रसों को प्रस्तुत करते समय की भाव भंगिमाएं, सन्यासी, मदमत्त तथा उन्मत्त पात्रों के परिचालन तथा गतियों के अभिनय करने का विधान दिया गया है।।
14वें अध्याय में रंगमंच पर अवस्थित घर, उपवन, जंगल जल, स्थल आदि प्रदेश को सांकेतिक करने के निश्चय, समय के अनुसार विभाजन तथा 1 वर्ष या 1 मास में घटित घटनाओं के लिए नए अंक की योजना, देश, वेशभूषा, आधार आदि पर निर्भर चार प्रकार की प्रवृत्तियों का निरूपण, सुकुमार तथा आबिद्ध नामक दो प्रकार के नाट्य प्रयोगों का वर्णन तथा अंत में लोकधर्मी तथा नाट्यधर्मी नामक दो नाटक विधाओं का विवेचन किया गया है।।
पंचदश अध्याय में वाचिक अभिनय के बारे में बताया गया है। इसमें आरंभ के अक्षरों पर आधारित वाणी का नाटक के वाचिक अभिनय में उपयोग बताते हुए अक्षरों का स्वर व्यंजनात्मक विभेद बताकर उसके स्थान प्रयत्न आदि का विवरण दिया गया है। इसके आगे शब्दों की संज्ञा, क्रिया, उपसर्ग, संधियां को बता कर नाटक में की जाने वाली भाषाओं तथा शब्द भेद द्वारा विवेचन किया गया है। इसके उपरांत नाट्य के संवाद वाचिक अभिनय में प्रयुक्त होने वाले एक से लेकर 26 अक्षरों तक के छंदों को उदाहरण देते हुए समझाया गया है। अंत में गुरु, लघु तथा यति मात्रा आदि छंद शास्त्र के पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या की गई है।।

सोलहवीं अध्याय में इस क्रम को आगे बढ़ाकर वाचिक अभिनय में उपयोगी वृत्तियों का उदाहरण पूर्वक व्याख्या की गई है।।

सत्रहवें अध्याय में अभिनय के अंतर्गत काव्य के 36 लक्षणों को बताया गया है इसके उपरांत उपमा,रूपक, दीपक तथा यमक नामक काव्य अलंकार का व्याख्या करते हुए गुण तथा दोष को बताया गया है।।

अठारहवीं अध्याय में नाट्य उपयोगी भाषाओं का विवरण देते हुए संस्कृत भाषा, प्राकृत भाषा तथा अपभ्रष्ट या देशी शब्द रूपों के उच्चारण भेद द्वारा होने वाले परिवर्तनों का विवरण देकर भाषाओं का वर्णन किया गया है। इन भाषाओं को बोलने के लिए नियम, विराम तथा काकु का प्रयोग बताया गया है।।

उन्नीसवीं अध्याय में पूर्व के अध्ययनों को बढ़ाते हुए उच्च, मध्य तथा निम्न वर्ग के पात्रों के संबोधन करने की विविध प्रणालियों का वर्णन किया गया है।।
बीसवीं अध्याय में रूपकों के भेद बताया गया है और नाट्यशास्त्र के मुख्य विषय का आरंभ किया गया है। इस अध्याय में दस रूपाकों के लक्षण को बताते हुए प्रतिपादित किया गया है। इनके अंगभूत अंक, प्रवेशक, विष्कम्भक,चूलिका आदि का निरूपण करते हुए रूपक के अन्य संघटक अंगों की चर्चा की गई है।।
21 वें अध्याय में आहार्य अभिनय के बारे में बताया गया है, 22 वें अध्याय मैं युवक्तियों के अलंकार तथा नायिका की अवस्थाओं का निरूपण किया गया है।
तेईसवें अध्याय में नारी की प्रकृति पर चर्चा की गई है।
चौबीसवें अध्याय में नायक नायिका के प्रकारों का वर्णन किया गया है।
25 वें अध्याय में अभिनय संबंधी निर्देश एवं नाट्योत्ति वहीं 26वें एवं 27वें अध्यायों मैं नाट्य प्रयोग, 28 वें अध्याय से लेकर 34वें अध्याय तक संगीत शास्त्र के विषय को प्रतिपादित किया गया है, इसी क्रम में 28 वें अध्याय में चार प्रकार के वाद्य यंत्रों का विस्तार से वर्णन किया गया है स्वरों के साथ प्रकार बताएं गए हैं उनके वादी आदि के चार विभेद दिए गए हैं।। 31 एवं 32 वें अध्याय में ताल-लय, 33 वें अध्याय में गायन वादन के गुण दोषों को बताया गया एवं 34 वें अध्याय में पुरुष एवं स्त्रियों की त्रिविध प्रकृति का वर्णन साथ ही साथ चार प्रकार के नायकों का वर्णन दिया गया है। 35 वें अध्याय में पात्रों की भूमिका के बारे में एवं 36 वे अध्याय में पूर्वरंग विधान की कथा और आखरी37वें अध्याय में नाट्यशास्त्र स्वर्ग से पृथ्वी पर किस प्रकार से आया। और इसी अध्याय में राजा नहुष की प्रार्थना पर स्वर्ग से नाट्य पृथ्वी पर अवतरित हुआ की कथा बताई गई है।।

डॉ दीपक प्रसाद

अभिनेता, निर्देशक, प्राध्यापक, रंगकर्मी
8935984266





Comments

Popular posts from this blog

नाट्यशास्त्र, द्वितीय भाग:-प्रेक्षागृह

नाट्यशास्त्र