नाट्यशास्त्र

नाट्यशास्त्र

 डॉ दीपक प्रसाद 
(रंगकर्मी)
रांची विश्वविद्यालय रांची
नाट्यशास्त्र हमारी भारतीय चिंतन परंपरा को समेटे हुए एक ऐसा ग्रंथ है, जो भारतीय प्रदर्शन धर्मी कलाओं का आधार ग्रंथ माना गया है। इस ग्रंथ में शास्त्र और लोक दोनों का समावेश है तो यहां यह समझना आवश्यक हो जाता है कि अगर यह ग्रंथ शास्त्र अपने आपको कहता है तो कैसे? और यह प्रचलन में है की शास्त्र और लोक यह दोनों अलग अलग नहीं तो भी दो समानांतर धाराएं हैं। और यहां यह भी समझना आवश्यक हो जाता है कि लोक क्या है। यहां हमें शास्त्र और लोक को समझ लेने के बाद यह हमारे सामने स्पष्ट होगा कि जो यह समृद्ध ज्ञान की परंपरा जिसे हम नाट्यशास्त्र के रूप में जानते हैं जिसकी परंपरा लगभग ढाई हजार साल पुरानी मानी जाती है। 

     शास्त्र के दो उत्पत्तिपरक अर्थ माने गए हैं एक है "शासनात शास्त्रम "जो शासन करें वह शास्त्र है। उसमें वेद, स्मृति, धर्मशास्त्र जो हमें आज्ञा दे किसी भी काम को करने में जिसमें वह प्रवृत्त हो या निवृत हो जो कार्य करने की आज्ञा दें वह शास्त्र होता है। क्योंकि नाट्यशास्त्र चार वेदों से चार तत्वों को लेकर रचा गया ग्रंथ है, इसलिए हम इसे शास्त्र कह सकते हैं। हालांकि वह सीधी सीधी आज्ञा नहीं देता है। अगर हम इसे दूसरे अर्थों में समझने की कोशिश करें तो हम इसे कह सकते हैं कि जो कथन करे, जो किसी चीज के तत्वों का विवेचन करें उसको शास्त्र कहा गया है। जैसे काव्यशास्त्र, अलंकार शास्त्र यह सारे शास्त्र हम जो देख रहे हैं इसे उसी श्रेणी में रखा गया है। तो हम उसी श्रेणी में नाट्यशास्त्र को भी रख सकते हैं,क्योंकि नाट्यशास्त्र नाटक के तत्वों का विवेचन करता है! व्याख्या करता है। अभिनय के सूत्र देता है। 


  लेकिन यहां सवाल यह भी है की नाट्यशास्त्र बार-बर इस बात पर जोर देता है कि जो भी बात यहां नहीं की गई हो या छूट गई हो या बची रह गई हो उसे आप लोक में खोजें और लोक को ही प्रमाण मानीय। तो अब हमें यह भी समझना पड़ेगा कि लोक क्या है। लोक का व्युत्पत्ति परक अर्थ होता है "प्रकाश" "प्रकाशित करना या प्रकाश का होना। इसलिए एक शब्द है "आलोक"। लोक का एक दूसरा भी अर्थ है जो 14 भुवनो को स्पष्ट करता है। जो हमारी भारतीय परंपरा में एवं सृष्टि को समझने की प्रक्रिया में जाते हैं तो वहां 14 लोक कहे
 गए हैं 7 लोक ऊपर के और 7 लोक पृथ्वी के नीचे। इन तमाम लोकों में रहने वाले प्राणी लोक कहे जाते हैं।

     इसे हम और स्पष्ट करें तो लोक या जन नगर या गांव में बसने वाले वे सीधी सरल जनता का परिचायक होता है जिसमें किताबी ज्ञान से अधिक व्यवहारिक ज्ञान होता है। उसमें इस प्रकार के ज्ञान का वर्धन पारंपरिक, धार्मिक संस्कारों से होता है। इसलिए उसमें उच्च प्रभाव दिखाने की अपेक्षा सरल स्वभाव की अधिकता होती है। उनके मन के विचार संपूर्ण जनमानस को आंदोलित करने की क्षमता रखता है। इन पर शास्त्रीय ज्ञान का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। वह जो भी करता है पूरे लोकमानस के कल्याण के लिए करता है। नाट्य शास्त्र में वर्णित लोक के संदर्भ को देखते हैं तो वहां भी इसका अर्थ यही है, यह जो समस्त सृष्टि है उसमें जो व्याप्त सभी प्राणी है,क्योंकि भारतीय परंपरा एक अखंड परंपरा है। और वह केवल मनुष्य का ध्यान नहीं रखती है जैसा कि अन्य सभ्यताओं में देखते हैं, की वहां केवल मनुष्यों का हित के लिए सोचते हैं लेकिन हमारी परंपरा में तमाम सृष्टि में निवास करने वाले चाहे वह पशु,पक्षी कीड़े,मकोड़े कोई भी जीव-जंतु हो सबों के लिए समान दायित्व निर्वहन करती है। मनुष्य देव असुर गंधर्व किन्नर यह सभी शामिल है। यहां सबों का समावेश है।

    भारतीय परंपरा के अनुसार किसी भी नये शास्त्र के प्रवर्तन के समय उसका उत्स वेदों में देखा जाता है। वेद ज्ञान स्वरूप है, उसमें त्रिकाल का ज्ञान बीज रूप में निहित होता है। भारतीय मनीषियों ने अपने किसी ज्ञान को अपनी स्वयं की उद्भावना नहीं मानते। नाट्य वेद की उत्पत्ति की कथा में भी यह प्रवृत्ति परिलक्षित होती है। इस प्रवृत्ति के अनुसार नाटक की उत्पत्ति का संबंध ब्रह्मा,विष्णु और महेश के साथ घनिष्ठ रूप से जोड़ा गया है। नाट्यशास्त्र के आरंभ में भरतमुनि ने ब्रह्मा और महेश की स्तुति इस कारण से की है कि ब्रह्मा को नाटक तथा शिव को नृत्य का जनक माना है। इस मत का उल्लेख स्वयं अभिनव गुप्त ने नाट्यशास्त्र के प्रथम श्लोक की व्याख्या करते हुए किया है।

    भरत प्रणित नाट्यशास्त्र के आरंभ में एक कथा वर्णित है। तदुपरांत एक समय जब भरतमुनि शांत भाव से बैठे हुए थे आत्रेय प्रभृत्ति मुनिगण उनके सम्मुख उपस्थित होकर प्रश्न करने लगे की भगवन! आपने जिस वेद तुल्य नाट्य शास्त्र का निर्माण किया है, वह किस प्रकार उत्पन्न हुआ? और किसके लिए बनाया गया है? उसके बनाने का अभिप्राय क्या है? उसके कितने अंग हैं? और उसका प्रयोग किस प्रकार किया जाता है? इन सभी बातों को आप हमें कृपा कर विस्तारपूर्वक बताएं। यह सुनकर भरतमुनि ने कहा-वैवस्वत मनु के समय त्रेता युग प्रारंभ हुआ। लोगों में रजोगुण की बढ़ती प्रवृत्ति परिलक्षित होने लगी। फलत: काम तथा लोभवश लोग ग्राम्य धर्म की ओर प्रवृत्त हो गए तथा ईर्ष्या और क्रोध से मदांध होकर वे सुख और दुखों से अभिभूत होने लगे।

      देव, दानव, गंधर्व, यक्ष, राक्षस और नागों से समाक्रांत होने पर अर्थात अनेक जातियों का प्रादुर्भाव होने पर इंद्र प्रभृत्ति देवताओं ने ब्रह्मदेव से आकर कहा की हे पितामह! हम ऐसा कोई 'क्रीडनीयक'या खेल चाहते हैं जो दृश्य भी हो और श्रव्य भी हो। जो सुनने के लिए मधुर और देखने में सुंदर हो। हम ऐसा कोई खेल चाहते हैं जो वेद व्यवहार एवं शूद्र जाति को सिखाया नहीं जा सकता, अतएव आप समस्त वर्णों के योग्य किसी पांचवें वेद की रचना कीजिए! इस बात को सुनकर ब्रह्मा जी ने एवमस्तु कहकर देवगणों को विदा किया,। तभी ब्रह्मा जी ने चारों वेदों का समाधिस्थ होकर स्मरण किया और संकल्प किया की मैं धर्म अर्थ और यश का साधन उपदेश युक्त शास्त्र ज्ञान से संबंधित भावी जगत् के लिए समस्त कर्मों का अनु दर्शन कराने वाला समस्त शास्त्रार्थों से युक्त समस्त शिल्पों का प्रदर्शक, इतिहास युक्त नाट्य नामक वेद की रचना करूंगा।

      नाट्यशास्त्र में इस बात का उल्लेख है की ब्रह्मा ने नावेद की उत्पत्ति के समय नाट्य विधायक विविध तत्वों को विभिन्न वेदों और उनकी शाखाओं से ग्रहण किया था। उन्होंने ऋग्वेद से पाठ का अंश ग्रहण किया सामवेद से जीत का यजुर्वेद से अभिनय का और अथर्ववेद से रसों का संग्रहण किया। इस प्रकार नाट्य वेद का निर्माण करने के पश्चात ब्रह्मा ने इंद्र को देवताओं द्वारा इसका प्रयोग करने के लिए कहा, किंतु इंद्र ने अपनी असमर्थता प्रकट की। क्योंकि नाटक केवल अनुकरण मात्र नहीं है, वह उससे कहीं अधिक है। उसमें इच्छा ज्ञान और कर्म शक्ति की नितांत आवश्यकता होती है जो मनुष्य मैं नैसर्गिक होता है। देवताओं में उसका सर्वथा अभाव होता है। देवता सिद्धि दे सकता है साधना नहीं कर सकता। नाटक साधना का विषय है। इंद्र की बात सुनकर ब्रह्मा ने इतिहास युक्त नाट्य वेद भरतमुनि को ग्रहण करने के लिए कहा। भरतमुनि ने उसे ग्रहण कर अपने समस्त पुत्रों को, कहा जाता है की भरतमुनि के 100 पुत्र थे उसकी शिक्षा दी। इस प्रकार इतिहास नाट्य वेद में जोड़ा गया। नाटक के आवश्यक तत्व हैं-पाठ्य गीत अभिनय और रस के साथ कथानक का योग होने पर शास्त्र के अनुसार नाटक का प्रथम प्रयोग उक्त पांच तत्वों को लेकर ही संपन्न हुआ। भरतमुनि ने इसमें केवल तीन वृत्तियों भारती, सात्वती और आरभटी का ही योग किया था। भरत के शिष्यों ने इन तीनों वृत्तियों का प्रयोग बड़ी सरलता से कर लिया वहीं चौथी वृत्ति कैशिकी का प्रयोग वह नहीं कर सके। क्योंकि इस वृत्ति के प्रयोग में सुकुमार साज सज्जा स्त्री सुलभ चेष्टाएं, कोमल श्रृंगारोपचार की नितांत आवश्यकता होती है। ब्रह्मा ने इस कमी का अनुभव किया और नाट्य को सुंदर बनाने के लिए अप्सराओं की सृष्टि की। इस प्रकार नाट्य शास्त्र में स्त्रियों का प्रवेश हुआ।

     प्रथम बार इंद्र के ध्वजारोहण के अवसर पर चारों वृत्तियों से संयुक्त नाटक खेला गया, इसे देखकर देवगन प्रसन्न हुए और भरत मुनि को अनेक नाट्योपयोगी उपकरण दिए और रक्षा करने का आश्वासन भी दिया। इस नाट्य प्रयोग में देवों की विजय और दैत्यों की पराजय को प्रदर्शित किया गया। दैत्य यह देखकर बहुत नाराज हुए और उन्होंने ब्रह्मदेव के सम्मुख नाट्य प्रयोग के प्रति अपना रोष प्रकट किया। ब्रह्मदेव ने आश्वासन दिया की यह नाट्य प्रयोग किसी को ऊंचा या नीचा दिखाने के लिए नहीं किया गया है। इस ब्रह्माड में अगर शुभ है तो अशुभ भी है। इस लोक के लोगों का चरित्र न तो एक सरल रेखा की तरह होता है और ना उनकी अवस्थाएं ही एकाकार होती हैं। कोई यहां सांसारिक सुख की चरम सीमा पर आनंद का उपयोग करता परिलक्षित होता है तो कोई यहां दुख कष्टों के आथाह सागर में डूबा होता है। वस्तुतः यह संसार विचित्रता का एक विलक्षण उदाहरण है। यहां सुख तथा दुख हर्ष तथा विषाद प्रसन्नता तथा उदासीनता नाना प्रकार की मानसिक विकृतियों की विशाल परंपरा ही दृष्टिगोचर होती है। ऐसे विचित्र पूर्ण लोक चरित्र का अनुकरण ही नाट्य है।

    ब्रह्मदेव ने कहा-दैत्यों! नाट्क में संपूर्ण त्रिलोक्य के भावों का अनुकीर्तन होता है। अतएव इसमें कहीं धर्म देखने को मिलेगा तो कहीं क्रीडा कहीं अर्थ होगा तो कहीं शम। इस प्रकार इस सृष्टि में जिसका जिस प्रकार का वृत्त देखा जाता है वैसा ही वह नाट्य में प्रस्तुत किया जाता है। अनेक प्रकार के भावों से संपन्न एवं नाना अवस्थाओं से युक्त लोकवृतानुकरण नाट्य में मिलेगा। इसे हम और इस प्रकार से समझ सकते हैं की भावनाओं का सर्व सामान्य रूप से चित्र अंकित करना ही मेरा अभीष्ट है। इस नाट्य में विशिष्ट या वैयक्ति कुछ भी नहीं है। इसलिए देवताओं पर क्रोध नहीं करना चाहिए। इस प्रकार से ब्रह्मा जी ने दैत्यों को शांत कराया, तत्पश्चात नाटक यथावत सुचारू रूप से चलता रहा।

डॉ दीपक प्रसाद
अभिनेता, निर्देशक, प्राध्यापक, रंगकर्मी
रांची विश्वविद्यालय रांची, झारखंड
संपर्क- 8935984266

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